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वाणिज्यिक विधि
गायत्री बालासामी बनाम मेसर्स आई.एस.जी. नोवासॉफ्ट टेक्नोलॉजीज लिमिटेड 9
«30-Jul-2025
परिचय
यह मामला इस बात पर केंद्रित है कि क्या भारतीय न्यायालयों को माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 34 और 37 के अधीन माध्यस्थम् के निर्णयों को परिवर्तित (या संशोधित) करने का विधिक अधिकार है। चूँकि उच्चतम न्यायालय के पूर्व निर्णयों में मिले-जुले जवाब मिले थे, इसलिये इस भ्रम को दूर करने के लिये पाँच न्यायाधीशों की एक विशेष पीठ का गठन किया गया। न्यायालय ने अंतिम निर्णय पर पहुँचने के लिये विधि, पूर्व निर्णयों, वैश्विक प्रथाओं और भारत में माध्यस्थम् के मुख्य उद्देश्य का बारीकी से अध्ययन किया।
तथ्य
- यह मामला गायत्री बालासामी बनाम आई.एस.जी. नोवासॉफ्ट टेक्नोलॉजीज लिमिटेड सहित अन्य अपीलों से उत्पन्न हुआ, जिसमें धारा 34 और 37 के अधीन न्यायालयों को प्राप्त शक्तियों की सीमा पर प्रश्न उठाया गया था।
- कई पीठों ने परस्पर विरोधी निर्णय पारित किये थे - कुछ न्यायालयों ने माध्यस्थम् संबंधी पंचाटों को संशोधित किया, जबकि अन्य ने 1996 के अधिनियम के अधीन ऐसी शक्ति को अनुपलब्ध घोषित कर दिया।
- तीन न्यायाधीशों की पीठ ने प्रमुख विधिक प्रश्नों को मुख्य न्यायाधीश को सौंप दिया, जिसके परिणामस्वरूप एक सांविधानिक पीठ का गठन हुआ।
- विवाद का केंद्र यह था कि क्या किसी निर्णय को अपास्त करने में उसे आंशिक रूप से संशोधित करने की शक्ति भी सम्मिलित है।
- न्यायालय ने धारा 34 का विश्लेषण किया, जिसमें उसकी व्याख्या, प्रावधान और संबंधित धाराएँ जैसे 5, 31, 33, 37 और 48 सम्मिलित थीं।
- इस मामले में UNCITRAL मॉडल विधि और न्यूयॉर्क अभिसमय के अधीन अंतर्राष्ट्रीय माध्यस्थम् विधियों के साथ तुलना भी सम्मिलित थी।
- पंचाट के पश्चात् ब्याज, लिपिकीय त्रुटियों और पृथक्करण के सिद्धांत पर विशेष ध्यान दिया गया।
- विभिन्न घरेलू और विदेशी निर्णयों का हवाला देते हुए न्यायिक संशोधन शक्तियों के पक्ष और विपक्ष में तर्क प्रस्तुत किये गए।
- निर्णय में अंततः स्पष्ट किया गया कि न्यायालयों के पास कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में माध्यस्थम् संबंधी निर्णयों को संशोधित करने की सीमित शक्ति है।
- इस निर्णय का उद्देश्य विधायी आशय और न्यायिक संयम को कायम रखते हुए मुकदमेबाजी के चक्र को कम करना था।
उठाया गए विवाद्यक
- क्या भारतीय न्यायालयों को माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 34 और 37 के अंतर्गत माध्यस्थम् पंचाट को संशोधित करने का अधिकार है, या उनकी शक्तियां केवल ऐसे निर्णयों को अपास्त करने तक ही सीमित हैं।
न्यायालय की टिप्पणियाँ
- न्यायालय ने कहा कि धारा 34 स्पष्ट रूप से माध्यस्थम् पंचाटों को संशोधित करने की शक्ति प्रदान नहीं करती है, किंतु न्यायिक व्यवहार में कभी-कभी इसकी अनुमति दी जाती है।
- इसने निर्णय को अपास्त करने (जो पंचाट को अमान्य कर देता है) और संशोधन करने (जो पंचाट को परिवर्तित कर देता है) के बीच अंतर को देखा, तथा अन्याय और बार-बार होने वाली माध्यस्थम् से बचने के लिये सीमित हस्तक्षेप की आवश्यकता को स्वीकार किया।
- न्यायालय ने कहा कि जहाँ पंचाट पृथक् करने योग्य हो, उसमें लिपिकीय या गणना संबंधी त्रुटियाँ हों, या पंचाट के पश्चात् हित संबंधी विवाद्यक शामिल हों, वहाँ संशोधन की अनुमति दी जा सकती है।
- इसने अंतर्राष्ट्रीय प्रथाओं को स्वीकार किया तथा इस बात पर बल दिया कि विधि में मौन रहना निषेध के समान नहीं है।
- संशोधन करने की शक्ति का प्रयोग संकीर्ण रूप से किया जाना चाहिये, मामले के गुण-दोष की समीक्षा किये बिना या न्यायालयों को अपीलीय निकायों में बदले बिना।
- न्यायालय ने पूर्ण न्याय सुनिश्चित करने के लिये दुर्लभ मामलों में अनुच्छेद 142 के प्रयोग को बरकरार रखा, किंतु योग्यता के आधार पर निर्णयों को पुनः लिखने के प्रति आगाह किया।
निष्कर्ष
उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि न्यायालयों के पास धारा 34 और 37 के अधीन माध्यस्थम् संबंधी पंचाटों को विशिष्ट परिस्थितियों में संशोधित करने की सीमित शक्तियां हैं, जैसे कि गंभीर त्रुटियाँ, लिपिकीय त्रुटियाँ, या पंचाट के पश्चात् का हित। यह व्याख्या न्यायिक दक्षता और माध्यस्थम् स्वायत्तता की पवित्रता के बीच संतुलन स्थापित करती है।